MP Election 2023: OBC वोटर क्यों हैं इतने अहम? चुनाव में बने बीजेपी की ताकत, तो इस बार कांग्रेस भी OBC वोटरों पर फोकस कर खेलने जा रही बड़ा दांव
चुनाव में जातियों पर इतना जोर क्यों?
लोकनीति और अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की डिटेल रिसर्च के अनुसार मध्यप्रदेश में 65% मतदाता अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देना पसंद करते हैं। उनकी जाति का उम्मीदवार नहीं है तो उनके जातीय हितों की सुरक्षा करने वाला राजनीतिक दल या समूह उनकी पसंद होता है। 2011 की जनगणना के हिसाब से प्रदेश की आबादी का 21.1% हिस्सा अनुसूचित जनजाति (एसटी) और 15.6% अनुसूचित जाति (एससी) से आता है। 230 सीटों वाली विधानसभा में कुल 82 सीटें इनके लिए आरक्षित हैं। इसमें 47 एसटी के लिए और 35 एससी के लिए हैं।
राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का एक अध्ययन बताता है कि प्रदेश की 50.09% आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग की है। चुनाव में गैर आरक्षित सीटों पर पिछड़ी और अगड़ी जातियों के साथ सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला काम करेगा। विंध्य क्षेत्र में सवर्ण वर्चस्व वाली सीटें हैं। इस क्षेत्र में सबसे अधिक 29% अगड़ी जातियों के वोटर हैं। वहीं, चंबल-ग्वालियर और बुंदेलखंड सहित मालवा, भोपाल में पिछड़ी जातियों के बड़े गढ़ हैं। इसी रास्ते से हर बार जीत का सूत्र निकलता रहा है।
पिछड़ों के समर्थन से अभी तक जीतती रही है भाजपा :
1957 में मध्य प्रदेश के 20% विधायक केवल ब्राह्मण वर्ग से आते थे। 1972 में यह अनुपात 25% तक पहुंच गया था। डीपी मिश्र और श्यामाचरण शुक्ल के मुख्यमंत्रित्व काल के बाद यह वर्चस्व घटता गया। 1980 के बाद से अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह के जमाने में राजपूत हावी होते रहे। आदिवासी और अनुसूचित जाति को कांग्रेस का पारंपरिक वोटर माना जाता था, लेकिन वहां से कोई दमदार नेतृत्व नहीं उभरा। ऐसे में वोट बिखर गए।
भाजपा ने 2003 के चुनाव में जब उमा भारती को आगे किया तो उसके पीछे ओबीसी में आने वाले लोधी समाज के वोटों के ध्रुवीकरण का भी लक्ष्य था। यह दांव कारगर रहा और उमा भारती मुख्यमंत्री बन गईं। बाद में बाबूलाल गौर (यादव समाज) और शिवराज सिंह चौहान (किरार समाज) के साथ पिछड़ा वर्गों का जुड़ाव बढ़ता चला गया।
कांग्रेस के जातीय जनगणना वाले दांव :
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाने जा रही है। कांग्रेस की नजर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) वोटर पर है, क्योंकि इस वर्ग को भाजपा की ताकत माना जाता है। दैनिक भास्कर ने इस मुद्दे पर जानकारों से बात की और पिछले चुनावों के ट्रेंड का विश्लेषण किया तो सामने आया कि कांग्रेस का यह दांव विधानसभा चुनाव में फायदा पहुंचा पाएगा, इस पर अब भी सवाल है। पढ़िए, तथ्य और जानकार क्या कहते हैं…
मध्य प्रदेश में जातीय पहचान की जड़ें बेहद गहरी हैं, लेकिन अभी तक देश के उत्तरी राज्यों की तरह यहां खुलकर कभी जातीय कार्ड नहीं खेला गया है। चुनाव में किसी उम्मीदवार को टिकट देने से पहले राजनीतिक दल उसका जातीय समीकरण जरूर देखते रहे हैं। साल 2018 में आरक्षण विवाद के चलते अनुसूचित जातियों और सवर्ण जातियों का बड़ा हिस्सा सरकार से नाराज हो गया था। इसका नतीजा यह रहा कि भाजपा को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था और इसी वर्ग के समर्थन से सत्ता कांग्रेस के पास चली गई थी।
यही कारण है कि पिछले एक साल में भोपाल के जंबूरी और दशहरा मैदान में भाजपा, कांग्रेस और अन्य संगठनों के जाति संबंधित सम्मेलन हो चुके हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऐसे हर सम्मेलन में संबंधित जाति के लिए बड़ी घोषणा कर चुके हैं। कांग्रेस भी जातियों के महत्व को समझ रही है। उसके चुनावी वादों में भी जातिगत आयोगों, मंडलों के गठन, तीज-त्योहारों पर सार्वजनिक छुट्टियों आदि का जिक्र किया जा रहा है।
कांग्रेस बोली: भाजपा के पिछड़े सीएम-पीएम आरक्षण तो दिला नहीं पाए
मध्य प्रदेश में कांग्रेस पिछड़ा वर्ग विभाग के अध्यक्ष और सतना विधायक सिद्धार्थ कुशवाहा का कहना है कि जातीय जनगणना की मांग हवा में नहीं हुई है। समाज के लोग सरकार और विपक्ष दोनों के नेताओं से इसकी मांग करते रहे हैं। सरकार को ऐसा कराने में दिक्कत क्या है? कांग्रेस और I.N.D.I.A. गठबंधन ने जोर देकर कहा है कि उनकी सरकार जातीय जनगणना कराएगी। इसका औचित्य भी है।
कुशवाहा एक उदाहरण देते हैं- “पिछले पंचायती चुनाव में कई ऐसे गांवों में पंच-सरपंच का पद पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित कर दिया गया, जहां उस समाज का एक भी परिवार नहीं रहता। इसकी वजह से उन सीटों पर कोई नामांकन ही नहीं आया। कुछ महीनों बाद उनके लिए आरक्षण प्रक्रिया दोहराई गई और फिर चुनाव हुए। चुनाव का खर्च बच सकता था अगर वहां के कलेक्टर के पास सभी जातियों का रिकॉर्ड होता।’
भाजपा ने कहा- कांग्रेस ने क्यों नहीं कराई जातिगत जनगणना :
भाजपा ने इस मुद्दे को लेकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर ही सवाल दाग दिया है। भाजपा पिछड़ा वर्ग मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष नारायण सिंह कुशवाहा कहते हैं कि जातीय जनगणना की मांग बहुत पुरानी है। इस बीच वर्षों तक कांग्रेस मध्य प्रदेश और केंद्र की सत्ता में रह चुकी है। वह जब सत्ता में थी तो उसने जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराई? उसको आगे बढ़कर यह काम कराना चाहिए था।
नारायण सिंह कुशवाहा का कहना है कि यह सच है कि ओबीसी महासभा ने भी जातिगत जनगणना की मांग उठाई थी। सरकार के सामने अपनी मांग रखने का सभी को हक है, करना भी चाहिए। भाजपा ने भी अभी इसका विरोध नहीं किया है। अब इस मामले में फैसला पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को ही करना है। देखिए इस पर क्या होता है।
अब पूरी राजनीति मंडल-कमंडल के इर्द-गिर्द :
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि पूरा देश अब मंडल और कमंडल की राजनीति पर जाता ही दिख रहा है। कांग्रेस जब मजबूत थी, उस समय मंडल यानी आरक्षण की राजनीति को लेकर क्षेत्रीय दलों ने अलग राह बनाई। दक्षिण से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में क्षेत्रीय ताकतें उभरीं। इसकी काट में भाजपा ने कमंडल यानी हिंदू ध्रुवीकरण की राह बनाकर अपनी ताकत बढ़ाई।
अब इस कमंडल की काट के लिए कांग्रेस और I.N.D.I.A. गठबंधन के दल मंडल का मुद्दा फिर उठा रहे हैं। एक बात यह भी है कि I.N.D.I.A. गठबंधन में अधिकतर दल वही हैं, जो कभी कांग्रेस की नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं। उन्हीं के उभार से उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन खिसक गई थी। ऐसे में जातीय जनगणना पर उन दलों का सबसे अधिक जोर है।
जातीय पहचान गहरी, लेकिन जागरूकता कम :
क्या जातीय जनगणना के दांव से कांग्रेस वोट बटोर पाएगी? इसका जवाब देते हुए राजनीतिक विश्लेषक सत्यम श्रीवास्तव कहते हैं, “मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में जातीय पहचान बहुत गहरी है, लेकिन आरक्षण और जातीय जनगणना के संभावित परिणामों को लेकर जागरूकता नहीं है। अभी तक पिछड़ा वर्ग के बीच इसको लेकर कोई चर्चा तक नहीं छिड़ पाई है।
उधर, भाजपा में खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पिछड़े वर्ग से आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद की पिछड़ी जाति से जुड़े होने की बात सार्वजनिक मंच से कह चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती के साथ लोधी वोट बैंक अब भी उसी तरह जुड़ा हुआ दिख रहा है।
जातीय गणना हुई तो आंकड़े नहीं आए:
भारत में हर 10 साल पर जनगणना होती है। 1951 के बाद से हर जनगणना में केवल अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जातियों को ही अलग से गिना गया।
2011 में पिछली जनगणना हुई थी, उसमें सामाजिक-आर्थिक गणना के नाम पर सभी जातियों का ब्योरा दर्ज हुआ था। सरकार ने उसके आंकड़े कभी जारी नहीं किए।
ओबीसी आरक्षण पर अदालती फैसलों की भी उलझन :
सामाजिक कार्यकर्ता और आरक्षण मामलों के जानकार बीके मनीष का कहना है, ‘यह एक ऐसा अस्त्र है, जो इस्तेमाल होकर खत्म हो चुका है। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव ने कांग्रेस से अगड़ी जातियों का वर्चस्व खत्म कर दिया। इंदिरा गांधी की चुनावी हार की एक वजह यह भी रही कि बाबू जगजीवन राम के नेतृत्व में एक धड़ा कांग्रेस से अलग हो गया। इसी पृष्ठभूमि में 1977 में पहली बार बिहार में ओबीसी को आरक्षण दिया गया। 1978 में उत्तर प्रदेश में भी यह आरक्षण लागू हो गया।
मध्य प्रदेश में ओबीसी का आरक्षण 1984 में लागू हुआ। यह 14% था, इसे बढ़ाकर केंद्र की तरह 27% करने की मांग पुरानी है। 2019 में कांग्रेस सरकार ने मध्य प्रदेश में एक्ट बनाकर आरक्षण का दायरा 14 से बढ़ाकर 27% कर दिया। इसे कोर्ट में चुनौती दी गई है, जिस पर अभी भी फैसला नहीं आ पाया है।
1979 में बिहार के बीपी मंडल की अध्यक्षता में बने आयोग की सिफारिश पर केंद्र सरकार की सेवाओं में पिछड़ी जातियों को 27% आरक्षण देने का प्रावधान आया, लेकिन जब तक यह रिपोर्ट आती, जनता पार्टी सरकार गिर चुकी थी और इंदिरा गांधी फिर सत्ता में आ गई थीं।
10 साल बाद वीपी सिंह की सरकार ने 1990 में ओबीसी आरक्षण लागू करने का कदम उठाया। 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने ओबीसी आरक्षण पर संशोधित सर्कुलर जारी किया। वह ओबीसी आरक्षण को दी गई अदालती चुनौती से जुड़ी और 1992 में ही संविधान पीठ के एक फैसले के बाद क्रीमीलेयर का पैमाना तय हुआ। 1993 से केंद्र सरकार की सेवाओं में 27% ओबीसी आरक्षण मिलना शुरू हो गया।
इतिहास में हमसफर है मंडल-कमंडल राजनीति :
बीके मनीष एक दिलचस्प तथ्य की ओर ध्यान खींचते हैं। उनका कहना है कि जब देश में पिछड़ों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण देने की मांग उठनी शुरू हुई, ठीक उसी समय हिंदुओं को एकजुट कर सत्ता पर कब्जे की जंग भी शुरू हो चुकी थी। यही वह दौर था, जब लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्राएं हो रही थीं। इसी दौरान भाजपा ने कमंडल का अपना दांव खेलना शुरू किया था। तब कोई नहीं सोचता था कि भाजपा किसी ओबीसी को मुख्यमंत्री बना देगी, लेकिन उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश में उमा भारती को उसने मुख्यमंत्री बनाया।
यह गैर यादव ओबीसी जातियों के सहारे राजनीति का नया राजपथ था। भाजपा का उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सत्ता पर कब्जा भी इसी की परिणिति थी। 1992 में जब मंडल कमीशन की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, उसके कुछ ही दिनों बाद अयोध्या की बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया।
कांशीराम से कांग्रेस तक आई जनसंख्या आधारित आरक्षण की बात :
जानकारों का कहना है कि जनसंख्या के आधार पर आरक्षण की मांग 1980 में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने बहुत जोर-शोर से उठाई थी। उनका नारा था- जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।
ओबीसी खासकर यादवों के राजनीतिक जागरण से उभरी समाजवादी पार्टी, बिहार की राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड जैसे क्षेत्रीय दल ही नहीं, दक्षिण की द्रविड़ राजनीति की केंद्र में रहे राजनीतिक दलों ने भी जातिगत जनगणना की मांग उठाई है। कांग्रेस ने पिछले साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया। फरवरी 2023 के रायपुर महाधिवेशन में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा कि सामाजिक न्याय की नींव को मजबूत करने के लिए तत्काल जाति जनगणना कराना महत्वपूर्ण है।
कांग्रेस के मध्य प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने जुलाई 2023 में कहा कि उनकी सरकार आई तो वे जातिगत जनगणना कराएंगे। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने मध्य प्रदेश की जनसभा में यही बात दोहराई। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कई मंचों पर जनसंख्या के आधार पर आरक्षण के कांग्रेस पार्टी में सबसे मुखर प्रवक्ता बने हुए हैं। वे कई सरकारी और राजनीतिक मंचों से यह मांग दोहरा चुके हैं।